जीवों का उपकार -सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का प्रवचन
प्यारी धर्मानुरागिनी जनता !
चेतन आत्मा शरीर के अन्दर है, इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए। उसके ऊपर शरीर के आवरण हैं- स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महा- कारण के रूपों में। ये चारों किस्म के आवरण घूंघट हैं-परदे हैं। ये परदे खुल जायँ, तब ईश्वर- दर्शन हो जाय। चारों परदों से ऊपर उठा जाय, तब ईश्वर-दर्शन हो जाय। घमण्ड नहीं करो, अन्तर्ज्योति को ग्रहण करो, उसके अन्दर अपनी चेतन आत्मा को प्रवेश कराओ और अन्तर्नाद का साधन करो। इसी बात में यहाँ और वहाँ आपका कल्याण होगा। जो इस बात को जानकर भजन नहीं करते, उनके लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है- ‘शूकर श्वान शृगाल सरिस जन, जनमत जगत जननि दुख लागी।’ केवल अपनी माता को कष्ट देने के लिए वे जन्म लेते हैं। बिल्कुल ठीक कहा। ईश्वर-भजन करो, घूँघट के पट से अपने को ऊपर उठाओ और शून्य में योग-युक्ति से प्रकाश करो। दादूदयालजी कहते हैं-
नीके राम कहतु है बपुरा ।
घर माहैं घर निर्मल राखै, पंचौं धोवै काया कपरा ।।
सहज समरपण सुमिरण सेवा, तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी, तहँ मोहन मेरा मन पकड़ा ।।
बिन रसना मोहन गुण गावै, नाना वाणी अनभै अपरा ।
दादू अनहद ऐसैं कहिये, भगति तत्त यहु मारग सकरा ।।
ये भी वही बात कहते हैं। घर के अन्दर घर को पवित्र रखो। स्थूल शरीर को शौचादि से पवित्र करो। सूक्ष्म शरीर को पवित्र करो उसके ऊपर से स्थूल शरीर को हटाकर। कारण शरीर को शुद्ध करो उसके ऊपर से सूक्ष्म शरीर को हटाकर और महाकारण शरीर को शुद्ध करो उसके ऊपर से कारण शरीर को हटाकर। पवित्रता के साथ-साथ गतिशीलता न हो, असंभव है। गतिशीलता से ही आवरण उतरते हैं। आवरणों से ऊपर उठकर आत्म- स्वरूप में रत होओ। संत लोग यही बात कहते हैं। हम लोग दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक सत्संग करते हैं। बारम्बार दुहराने से बात याद रहती है। सत्संग में ईश्वर-भजन के लिए प्रेरणा मिलती है, इसलिए सत्संग करना चाहिए।
आज इस समय यहाँ अ0 भा0 साधु-समाज के पुरैनियाँ जिला साधु-समाज के संयोजक आए हुए हैं और अपना लेखबद्ध वक्तव्य भी पाठ कर सबको सुनाया है। अतएव मैं भी उक्त साधु-समाज के विषय में कुछ कहूँ, उचित जँचता है। अखिल भारतीय साधु-समाज के संगठन का पहला काम साधु-समाज के सम्हाल के लिए अपेक्षित है। हम साधु लोग अपना सम्हाल करके जनता के सम्हाल के लिए भी प्रयास करें, यह उचित और आवश्यक है। मेरी परमात्मा से प्रार्थना है कि यह समाज उन्नति करता हुआ आगे बढ़े। यह समाज पहले अपना सम्हाल करे। जो महात्मा सुधरे हुए हैं, उनको कुछ कहना नहीं है। जो सुधरे हुए नहीं हैं, उनको अपना सुधार करना चाहिए। यदि गलती हो जाय तो सम्हलना चाहिए। साधु को वह काम नहीं करना चाहिए जो साधु के करने के योग्य नहीं हो। साधु को चाहिए कि पहले अपने को सम्हाल लें, फिर दूसरे को सिखावें। अपने को नहीं सुधार कर दूसरे को क्या सम्हालेंगे?
मामूली ज्ञान में हम सब जीवात्मा हैं। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी।’ जैसा मैं वैसा दूसरे। मैं सुखी-दुःखी होता हूँ वह भी सुखी-दुःखी होता है। मैं भी दूसरे की सहायता चाहता हूँ, वह भी चाहता है। उसकी माँग के पहले उसकी पूर्ति हम करें तो परमात्मा रंज नहीं हो सकते। एक भाई दूसरे भाई की सेवा करता है तो पिता खुश होते हैं। उसी तरह एक जीव दूसरे जीव की सेवा करता है तो परमात्मा प्रसन्न होते हैं। एक भाई दूसरे भाई की सेवा करो, जीवों का उपकार करो। मैं सेवा करने से रोकता नहीं। किन्तु ईश्वर-भजन करो और जनता की सेवा भी करो। महात्मा गाँधीजी ने बहुत भजन किया था, तब तो मरते समय मुँह से ‘हे राम!’ निकला। नहीं तो ‘बाप रे बाप’ क्यों नहीं कहा? ईश्वर-भजन नहीं करके और कामों को करना, मैं वैसा ही समझता हूँ, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा-
सो सब करम धरम जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ।।
ईश्वर-भजन छोड़कर जनता की सेवा अपवित्र सेवा है। अपने मन की हालत देखकर जानोगे कि तुममें कितनी पवित्रता या अपवित्रता है। सेवा पहले घर से होती है। बच्चे दाने-दाने के लिए तरसते हैं और अपने चले हैं जनता की सेवा करने। अपने घर की सेवा पहले करो, फिर जनता की भी सेवा करो। जो बहुत बड़े महात्मा हैं, जो ध्यान में मग्न रहते हैं, उनके लिए कुछ कहा नहीं जा सकता है। उनकी एक ही दृष्टि से जनता का क्या हो जाय, कहा नहीं जा सकता। वे जनता के लिए क्या-क्या सोचते हैं, करते हैं, वे ही जानते हैं।
नशीली चीजों को छोड़ो। मैं साधु हूँ, मुझको गृहस्थ क्यों नहीं खिलावेगा, यह दाबी नहीं रखो। घर-घर का मेहमान नहीं बनो, अपनी कमाई करो, और खाओ। गृहस्थी में रहो या विरक्ति में रहो, काम-रोजगार करो और परमात्म-भजन करो।
तुलसी कर पर कर धरो, कर तर कर न करो ।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरन भलो ।।
-गोस्वामी तुलसीदासजी
संत कबीर साहब कहते हैं-
मर जाऊँ माँगूँ नहीं, अपने तन के काज ।
परमारथ के कारने, मोहि न आवै लाज ।।
कोई कहे कि मैं माँगता नहीं हूँ, तो तुम कैसे नहीं माँगते हो? तुम किसी के यहाँ नहीं जाओ। जो कोई थोड़ा-थोड़ा कई घरों से माँग लेता है, वह विशेष भार नहीं देता है और जो एक ही आदमी के यहाँ जाकर खाता है, वह विशेष भार देता है। ईश्वर-भजन करो, अपना आचरण ठीक बनाओ, अपनी कमाई करके खाओ और जनता की सेवा भी करो।
गुरु महाराज के प्रतिज्ञा-पत्र पर हमने हस्ताक्षर किए हैं कि-‘संतमत की उन्नति में तन, मन, धन से हमेशा मददगार रहेंगे।’ इसको मत भूलिए। संतमत की उन्नति इसलिए कि इससे अध्यात्म-ज्ञान का प्रचार होता है। इस ज्ञान को फैलाना चाहिए। इसमें स्वार्थ-परमार्थ दोनों हैं। इससे जनता का बड़ा लाभ होता है। ऐसा मत चूको कि किसी वार्षिक सत्संग में उपस्थित न होओ। जीवों का उद्धार पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है इस प्रवचन में
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*यह प्रवचन 52वाँ महाधिवेशन, सिकलीगढ़ धरहरा, पूर्णियाँ में दिनांक 7.3.1960 ई0 को रात्रिकालीन सत्संग में हुआ था।*
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