🙏🕉️ जय गुरूदेव 🕉️🙏
भगवान श्रीराम का प्रजा को उपदेश -सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
धर्मानुरागिनी प्यारी जनता!
हमलोग जहाँ रहते हैं, इसको संसार कहते हैं। यह संसार बहुत बड़ा है। इतना बड़ा है कि खड़ा होकर भी सम्पूर्ण संसार को नहीं देख सकते। ऊपर-नीचे कहीं भी संसार खत्म नहीं होता। देखने में यह संसार-सागर है। इस बहुत बड़ी दुनिया में-विराट रचना में हमलोग पड़े हुए हैं। हम देह में आए हैं और देह संसार में रहती है। इस देह में रहकर छोटी उमर का, कुछ बड़ी उमर का, जवानी उमर का, अधेड़ उमर का और बुढ़ापे का भोग भोगते हैं। फिर एक दिन शरीर को छोड़कर चले जाते हैं। लेकिन संसार में ही रहते हैं, जो सूक्ष्म संसार है; फिर वहाँ का भोग भोगकर पुनः इस संसार में आते हैं। कितनी बार आए और कितनी बार गए ठिकाना नहीं!
इस संसार में किसी-न-किसी प्रकार का दुःख होता ही है। दुःख कभी पीछा नहीं छोड़ता। यहाँ तक कि परलोक में भी दुःख नहीं छोड़ता। दूसरे जन्म में भी दुःख होता है। इसलिए हमारे यहाँ जितने अच्छे आदमी आए, उन्होंने एक स्वर से कहा कि इस संसार से बिल्कुल छूट जाओ। इस संसार में जबतक शरीर लेकर आओगे, तबतक अवश्य दुःखी होओगे। इसीलिए इस संसार-सागर को तरने के लिए सभी महापुरुषों ने कहा।
ईश्वर-भजन करके संसार-सागर से तरना होगा। ईश्वर-भजन ही ऐसा है, जिसका अवलम्ब लेकर सारे दुःखों को कोई पार कर सकता है। फिर वह दुःख में नहीं आवेगा। यही एक उपाय है। भगवान श्रीराम ने यही समझा था। वे राजा होकर शासन करते थे और कहते हैं कि उनके समय में लोग बहुत सुखी थे। फिर भी जो स्वाभाविक दुःख है, वह तो आवेगा ही। स्वयं उनको भी स्वाभाविक दुःख आया और उनको भी भोगना पड़ा। दैहिक ताप-शरीर में से जो रोग उत्पन्न होते हैं। दैविक ताप-अकस्मात् होता है, जैसे गाछ से गिर जाना या फिसलकर गिर गए, हड्डी टूट गई आदि। भौतिक ताप-प्राणियों द्वारा जो कष्ट प्राप्त हो, जैसे बिच्छू का डंक या सर्प का दंश आदि। ये तीनों होते ही रहते हैं। एक आदमी ने सीताजी के प्रति घृणा-भाव का कुछ शब्द कहा था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है-
सिय निन्दक अघ ओघ नसाये। लोक विसोक बनाय बसाये।।
भगवान राम को दुःख हुआ कि हमारी प्रजा सीताजी से प्रसन्न नहीं हैं। उन्होंने सीताजी को छोड़ दिया। सीताजी वन में चली गई। यह सीताजी के लिए दैविक ताप हुआ। इन तापों से छूटने का उपाय करो, यही संतों का उपदेश है। बिना ईश्वर- भजन के इन त्रय तापों से छूट नहीं सकते। भगवान श्रीराम ने इसको समझा कि प्रजा को जितना सुख मिलना चाहिए, मिल रहा है; किंतु शरीर छोड़ने के बाद भी प्रजा सुखी रहे, इसीलिए उन्होंने सबलोगों को बुलाकर सभा की और यह शिक्षा दी-
बड़े भाग्य मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रथहिं गावा।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछताय।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय।।
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नरतन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहुँ भल कहहिं न कोई। गुंजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
आकर चारि लाख चौरासी। जोनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुणा नर देहीं । देत इस बिनु हेतु सनेही।।
नर तनु भव वारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करन धार सदगुरु दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
जो न तरइ भव सागर, नर समाज अस पाय।
सो कृत निन्दक मंद मति,आतम हन गति जाय।।
किसी भी जाति के शरीर में हों, छोटे-बड़े की बात नहीं। श्रीराम शवरी के यहाँ जाते हैं, वहाँ और भी बड़े-बड़े तपस्वी लोग थे। लेकिन उन सबों के यहाँ नहीं गए। वशिष्ठ मुनि ने निषाद को अपने हृदय से लगाया। भगवान श्रीराम ने शवरी के जूठे बेर खाए, यह प्रसिद्ध है। भगवान श्रीकृष्ण विदुरजी के घर पहुँचे। विदुरजी घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी ने प्रेमपूर्वक भगवान को केला खिलाया। यह भी लोग जानते ही हैं।
शिवाजी के गुरु समर्थ रामदासजी थे। समर्थ रामदासजी की सेवा में एक शिष्य थे। वे बड़े गुरु-भक्त थे। समर्थ रामदासजी भोजन करने के बाद पान खाते थे। दाँत नहीं रहने के कारण वे पान को चबा नहीं पाते थे। इसीलिए उनके शिष्य पान को कूटकर देते थे। जिस पात्र में पान कूटा जाता था, उस पात्र को समर्थ रामदास के अन्य शिष्यों ने छिपा दिया। जब पान कूटकर देने का समय हुआ, तो उस पात्र को नहीं पाने पर वे शीघ्रता में अपने मुँह से ही पान चबाकर समर्थ रामदासजी को दिया। यह बात विपक्षियों ने शिवाजी से कही। शिवाजी को बहुत बुरा लगा। वे समर्थ के भोजनोपरान्त के समय पहुँचे। पान चबाकर जब समर्थ को दिया गया, तो शिवाजी ने कहा-‘जिस पात्र में पान कूटा जाता है, वह पात्र कहाँ है? सामने लाइए।’ यह सुनते ही पान चबाकर देनेवाले ने अपने मुँह का जबड़ा उखाड़- कर समर्थ के सामने रखा। यह देखकर सभी आश्चर्य में पड़ गए। उस शिष्य की ऐसी भक्ति थी कि उनका चबाया पान भी समर्थ रामदासजी खा गए।
ईश्वर का भजन मनुष्य-शरीर में होता है। मनुष्य-देह ऐसी है कि यदि आखिरी में भी इसका ख्याल हो जाय और मरने के समय में ईश्वर का ख्याल लेते हुए मरता है, तो उसका बड़ा कल्याण होता है। किंतु यह कैसे हो सकता है? जिसने जीवनभर इसके लिए कोशिश की है, मरने के समय उसी को वैसा ख्याल हो सकता है। जिनको यह बोध हो गया है कि अब इस शरीर से कुछ काम नहीं होगा, तो उनको यदि ऐसा चिन्तन हो कि ईश्वर मुझे मिलें, उनका ठीक-ठीक भजन करूँ। इस प्रकार जो ख्याल लेकर मरता है, तो उसका अगला जन्म बहुत सुन्दर होगा। बचपन से ही वह भक्ति करने लग जाएगा। उपनिषद् में आया है कि मरने के समय चित्त में जो-जो भावनाएँ जीव करता है, वही-वही वह होता है, यही जन्म का कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी आया है-
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदातद्भावभावितः।।
अर्थात् मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भाव को स्मरण करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि सदा जिस भाव का चिन्तन करता है, अन्तकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है।
जिनको शरीर से कुछ काम नहीं हो सकता, उनको बेकार सांसारिक वस्तुओं की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उस चिन्ता से तो कुछ होता नहीं है। तब फिर बेकार सांसारिक चिन्ता से क्या लाभ? ईश्वर के नाम को मन-ही-मन जपते रहो, इसको मन में घुमाते रहो। जिनको ईश्वर संबंधी जो शब्द प्रिय हो, उसको जपो। चाहे राम, चाहे शिव, चाहे कृष्ण, जो ईश्वर-वाचक शब्द हो, उसको जपो। अपने को शुभगति में ले जाने का यही उपाय है। अपने को अपने से शुभगति में ले जाना होता है। यदि शरीर छोड़ने के बाद कोई कुछ क्रिया उनकी शुभगति के लिए करते हैं, तो उसके लिए मैं उसे निषेधात्मक नहीं कहता। यदि दूसरे के किए से कुछ ऊपर उठ गए और यदि अपना भी कुछ करके ऊपर उठ जाएँ, तो कितना अच्छा हो। अपनी शुभगति के लिए ईश्वर का भजन ही सर्वश्रेष्ठ है। जो जीवन में भक्ति पूरा नहीं कर सका और मरते समय उसका वैसा ख्याल हो जाय कि भक्ति पूरी नहीं हो सकी, तो दूसरे जन्म में ईश्वर की भक्ति की भावना से प्रेरित होकर वह भक्ति करेगा। मरता शरीर है और भावना मन में होती है। मन सूक्ष्म शरीर के साथ जाता है। इसलिए उसका जो दूसरा जन्म होगा, उस शरीर में उसका वह मन मदद करेगा और वह भजन करेगा।
सभी को ईश्वर-भजन करना चाहिए। चाहे खेती करो, चाहे विद्याध्ययन करो, चाहे कोई काम करो। थोड़ा-थोड़ा सभी ईश्वर का भजन करो। ‘तन काम में मन राम में।’ सभी कोई ईश्वर का स्मरण करते हुए काम करो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने फलाशा-त्याग करने कहा है। कर्म करके उसको ईश्वर में अर्पण कर दो। कबीर साहब ने कहा-
जो कुछ किया सो तुम किया, मैं कुछ किया नाहिं।
कबहुँ कहै कि मैं किया, तुमही थे मुझ माहिं।।
यहाँ अहंकार भाव का त्याग है। किंतु किसी को एक लाठी मार दो और कहो कि ईश्वर! तुमने मारा, सो नहीं। संत बनने के जितने अच्छे-अच्छे कर्म हैं, उसके लिए-‘जो किया सो तुम किया, मैं कुछ किया नाहिं।’ ईश्वर-भजन करने में यदि ईश्वर-भजन का अहंकार आता है, तो उसको परमात्मा भजन में ही गिराता है। ईश्वर का भजन मन में ऐसा बना लीजिए कि शरीर छोड़ते-छोड़ते भी वही याद रहे। कितने रोगी हों, कितने वृद्ध हों, यदि उनका मन फिर जाय और ईश्वर का भजन करते-करते शरीर छोडे़ तो उनकी वह गति होगी जो श्राद्ध-क्रिया से नहीं हो सकती। इसलिए सबको ईश्वर-भजन करना चाहिए।
इसीलिए भगवान श्रीराम ने कहा-यह शरीर बड़े भाग्य से मिला है। संक्षेप में भगवान श्रीराम ने समझाया कि यह शरीर विषय-भोग के लिए नहीं है। स्वर्ग का सुख भी थोड़ा ही है और अंत में दुःख है। यह मनुष्य-शरीर नाव है। ईश्वर की कृपा अनुकूल वायु है। गुरु कर्णधार हैं। मनुष्य-शरीर है ही, ईश्वर की कृपा भी प्राप्त है। बाकी सद्गुरु बच जाते हैं। खोजने पर सद्गुरु भी मिल जाते हैं। सद्गुरु मिलने पर भी यदि उनके अनुकूल नहीं चलिए तो नाव पार नहीं लग सकती। इसलिए संसार से पार होने के लिए ये ही तीन चीजें हैं। ये तीनों चीजें भवसागर पार करने के लिए सबसे सरल हैं। पहले जप करो। बूढ़े शरीर से प्राणायाम नहीं हो सकता। उनके लिए नाम जपना और किसी रूप, जिस रूप में श्रद्धा हो, उसका ध्यान करें। यदि उनको दृष्टि-साधन करने कहा जाय, तो उनसे नहीं होगा। इसलिए उनको शब्द-साधन करना चाहिए। बहुत बूढ़े के लिए ये तीन काम हैं। इनमें किसी एक का भी अभ्यास करते हुए शरीर का त्याग करना चाहिए।
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*यह प्रवचन पूर्णियाँ जिला के सिकलीगढ़ धरहरा में बाबू गिरो भगतजी के निवास स्थान पर दिनांक 13.6.1955 ई0 के सत्संग में हुआ था।*
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