संसार में पाँच ही पदार्थ हैं

संसार में पाँच ही पदार्थ हैं। सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज 

प्यारे लोगो!*
मैं ईश्वर की भक्ति के बारे में कहता रहता हूँ और किसी के बुलाने पर मैं जाता हूँ। अपनी ओर से नहीं जाता। ईश्वर-भक्ति के लिए ईश्वर- स्वरूप का जानना आवश्यक है। किसी भी पदार्थ को जानने के लिए ज्ञानेन्द्रियों से हम जानते हैं। संसार में पाँच ही पदार्थ हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। इन पंच विषयों को ही हम जानते हैं। इनसे अधिक हम जानते नहीं हैं और ये सभी विषय इन्द्रियगम्य हैं। ईश्वर कुछ ऐसा है कि उसके बारे में ये इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। मुँह से भले ही राम-राम कहें, लेकिन पहचानते नहीं। राम-राम कहकर एक अवतारी राम को और दूसरे सर्वव्यापी राम को जानते हैं। सर्वव्यापी राम तो केवल कहते हैं, पहचानते नहीं हैं। अवतारी राम को भी अभी देखते नहीं हैं, उनके संबंध में सुनते हैं-पढ़ते हैं। उस अध्ययन के आधार पर उनका रंग-रूप बनाया जाता है। फिर भी सभी रूप एक प्रकार के नहीं। वे अवतारी राम ठीक ही हुए हैं। हम जो देखते हैं श्रीराम का चित्र वा प्रतिमा उसमें सर्वव्यापी राम को नहीं पहचानते। चित्र वा प्रतिमा इन्द्रियगम्य है। लक्ष्मण ने श्रीराम से पूछा था कि माया क्या है? श्रीराम ने ठोस रूप में कहा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानहु भाई।।
गोस्वामी तुलसीदासजी ने अवतारी राम का बहुत वर्णन किया है। साथ ही, जब वे व्यापक राम के विषय में कहते हैं, तो वे कहते हैं-
राम स्वरूप तुम्हार, वचन अगोचर बुद्धि पर ।
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ।।
अर्थात् आपका स्वरूप वचन से परे, इन्द्रिय में आने योग्य नहीं, बुद्धि से ग्रहण होने योग्य नहीं, देखने में आने योग्य नहीं, सर्वव्यापी है और जिसकी सीमा को कोई देख नहीं पाता। आप स्वरूपतः अपार हैं।
जग पेखन तुम देखनिहारे। विधि हरि शम्भु नचावनिहारे।।
तेउ न जानहिं मरम तुम्हारा। अउर तुम्हहिं को जाननिहारा।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।।
अर्थात् संसार दृश्य (तमाशा) और आप उसको देखनेवाले तथा, ब्रह्मा, विष्णु और महादेव को नचानेवाले हैं। वे त्रिदेव भी आपके भेद को नहीं जानते हैं, फिर दूसरा कौन जाननेवाला है? आपको वही जानता है, जिनको आप जना देते हैं। फिर आपको जानते ही वे आप से निर्भेद हो जाते हैं।
यह ऐसा ज्ञान है कि जो मान्य है, अमान्य नहीं। अवतारी रूप, देवरूप सगुण-साकार है। इससे भक्ति का आरंभ होता है। इससे आगे भी भक्ति है। सगुण-साकार की आराधना करने की युक्ति गुरु से मिलती है। इससे आगे इन्द्रिय ज्ञान से परे की आराधना के लिए भी गुरु से ही भेद पाते हैं और आराधना करते हैं। सगुण और निर्गुण दोनों तरह की उपासना करनी चाहिए। सदाचार का पालन अवश्य होना चाहिए। दमशीलता चाहिए। दूसरे बहुत से कर्मों से विरत रहना चाहिए। पर सज्जनों के धर्म के अनुकूल बरतना चाहिए। सदाचार का पालन करना चाहिए।

संसार में पाँच ही पदार्थ हैं
छठ दम सील विरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
-रामचरितमानस
पुरुष लोग श्रीराम की तरह एक पत्नीव्रत धारण करें और महिलाएँ पातिव्रत धर्म का पालन करें। इस तरह के दोनों के मिलन से योग्य संतान होती है। संसार में सुख और शान्ति होती है। जब-जब ऐसे लोग हुए, संसार में सुख-शान्ति रही। सुख-शान्ति संसार में पूर्ण रूप से नहीं मिल सकती, आंशिक सुख-शान्ति मिलती है। इसकी भी प्राप्ति ठीक- ठीक तभी हो सकती है, जबकि दोनों पवित्र रहें। यह सदाचार पर निर्भर है। सदाचार ईश्वर-भक्ति पर अवलम्बित है। ईश्वर-भक्ति को सदाचार से सहायता मिलती है। नारि-वर्ग उस तरह की हों, जैसे अन्य पतिव्रताएँ हुई हैं। उनके लिए स्वर्गादि मामूली चीज है। वह मृतक को जीवित कर सकती है, हरण किए गए राज्य को पलटा सकती है तथा अंधे को आँख दे सकती है। इसके लिए सावित्री- सत्यवान की कथा हमारे यहाँ प्रसिद्ध है।

संसार में पाँच ही पदार्थ हैं
सबको ईश्वर-भक्ति और सदाचार का पालन करना चाहिए। संसार से सभी चले जाएँगे। संसार की सभी चीजें छूट जाएँगी। लेकिन यह यश रहेगा कि फलानी बड़ी भक्तिन थीं, पतिव्रता थीं। शवरी बड़ी भक्तिन थीं। श्रीराम उनके यहाँ गए थे और भी बड़े-बड़े विद्वान पण्डित लोग उस जंगल में थे, लेकिन श्रीराम पहले शवरी के यहाँ ही गए और श्रीराम ने स्वयं कहा-‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ न तो श्रीराम कुछ माँगने कहते हैं और न शवरी ही कुछ माँगती है; क्यांकि वहाँ कमी नहीं थी और अंत में इसलिए शवरी की ऐसी गति हुई कि-
तजि योग पावक देह हरि पद लीन भये जहँ नहिं फिरै।
सभी कुशल से रहें और भक्ति में आप बढें। परमात्मा से यही मेरी प्रार्थना है।
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*यह प्रवचन उत्तरप्रदेश राज्यान्तर्गत ग्राम-लुकरगंज, महिला सत्संग, इलाहाबाद में दिनांक 1.10.1962 ई0 को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।

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