महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के दीक्षा विधि

महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के दीक्षा विधि 

महर्षिजी की दीक्षा-विधि

कोई भी काम हो, उसे करने की एक युक्ति होती है। अगर वह युक्ति नहीं जानते हैं, तो वह काम अच्छी तरह कैसे प्रारंभ करेंगे? ईश्वर की भक्ति करने की युक्ति को दीक्षा-विधि या भजन-भेद कहते हैं। यह जो हमें बतलाते हैं, वे हमारे आध्यात्मिक गुरु होते हैं और हम उनके शिष्य ।

लोगों को त्रयतापों से सन्तप्त देखकर संतों के हृदय में दया उमड़ने लगती है। इसीलिए वे उन्हें दुःखों से मुक्त कराने के लिए ईश्वर भक्ति का रहस्य बताया करते हैं। हमारे गुरुदेव भी स्वयं किशोर, युवक, वृद्ध नर-नारियों को, चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित, नगर के हों या गाँव के, निर्धन हों या धनी, समाज में सम्मान्य हों या उपेक्षणीय, किसान हों या राजनेता, सवर्ण हों या अवर्ण दीक्षा दिया करते थे। आपका शरीर जब अत्यधिक शिथिल हो गया, बैठकर लोगों को दीक्षा नहीं बता पाने लगे, तब सन् १९७२ ई० में आपने लोगों को दीक्षा देना छोड़ दिया। इसके पहले ही १९६४ ई० के १ नवम्बर को अपने कुछ इने-गिने शिष्यों को आदेश दे दिया था कि आपलोग दीक्षार्थियों को मेरी ओर से दीक्षा दिया कीजिए। उन्हें दीक्षा देने का अधिकार देते हुए सावधान भी किया था कि आपलोग इसको जीविकोपार्जन या स्वार्थ सिद्धि का साधन बनाएँगे, तो नरक में चले जाएँगे।

जिसने छह महीने पूर्व मांस-मछली खाना छोड़ दिया हो, भजन -भेदी सत्संगियों के साथ बैठकर कुछ महीने से सत्संग करता रहा हो, संतमत सिद्धान्त (इस निबंध की समाप्ति पर संतमत – सिद्धान्त पढ़ें।) कंठस्थ हो और उसे समझकर स्वीकार करता हो तथा जिसके लिए कोई पुराने परिचित सत्संगी गवाह के रूप में यह कहें कि हाँ, मैं इन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ; मेरे साथ सत्संग करते हैं, अच्छे आदमी हैं, दीक्षा लेने के योग्य हैं। मुझे पूरी आशा है कि ये भजन-ध्यान करेंगे-ऐसे व्यक्ति को आप दीक्षा दिया करते थे। ये शर्तें जिनकी पूरी नहीं होती थीं, उन्हें आप दीक्षा न देकर लौटा दिया करते थे। किन्हीं किन्हीं की शर्तें पूरी होने पर भी उनके भजन -भेद होने की व्याकुलता
की जाँच करने के लिए कहते थे कि मुझसे अमुक जगह, अमुक दिन भेंट कीजिए, तब देखा जाएगा। इस तरह कई बार बुलाते और लौटा देते। जब देखते थे कि इनमें भजन-भेद की सच्ची जिज्ञासा है, तब प्रसन्नता के साथ बता देते थे।

जिनको आप दीक्षा देने को तैयार होते थे, उन्हें पहले ही कह दिया. करते थे कि ‘अमुक दिन (शनिवार को छोड़कर) इतने बजे (लगभग १० बजे) बिना कुछ खाये, स्नान करके कुछ प्रसाद और फूलों की माला लेकर मेरे पास आइएगा।’

नियत समय और नियत जगह पर ये दीक्षार्थी आपके कहे हुए ढंग से आकर शान्त भाव से बैठते। आप स्नानादि करके आते और इनके सामने अपने आसन पर बैठ जाते। अपने रजिस्टर में दीक्षार्थियों के नाम (स्त्री के पति का भी नाम), जाति, पेशा, धर्म, गाँव, डाकघर, वाया, जिला लिख लेते थे और संतमत सिद्धांत ठीक से समझाकर निम्नलिखित प्रतिज्ञाएँ कराते थे, जो आपकी बही में भी ऊपर लिखी होती थी-

(१) हम प्रतिज्ञा करते हैं/करती हैं कि संतमत की रीति अभ्यास और उससे जो कुछ अन्तर में मालूम होगा, कभी किसी से नहीं कहेंगे/कहेंगी।

(२) हम संतमत – सिद्धान्तों को अच्छी तरह से समझ गये / समझ गयीं, उनको हम दिल से प्यार करते रहेंगे/करती रहेंगी और संतमत की उन्नति में तन-मन-धन से हमेशा मददगार रहेंगे / रहेंगी।

(३) अभ्यास करने में जो शक्ति पैदा होगी, उसको बुरे कामों में खर्च नहीं करेंगे/करेंगी।

इतनी प्रतिज्ञाएँ कराने के बाद दीक्षा लेनेवालों से रजिस्टर में अपने-अपने नाम-पते के खाने में हस्ताक्षर कराते थे। जो निरक्षर होते थे, वे अपने खाने में एक लम्बी लकीर खींच देते थे। इसके बाद बतलाते थे कि कैसे स्थान पर, क्या बिछाकर, किस आसन से बैठना चाहिए और किस तरह, क्या जप ध्यान में करना चाहिए।

By -Tarun Kumar
🙏🌹जय गुरुदेव 🌹🙏

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